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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्ति व पुरुष सेवते नृपतीन् ॥ ४८ ॥ भावार्थ - राग द्वेष के छूटने से हिंसादि पाप छूट जाते है । जैसे जिसको धन प्राप्तिकी इच्छा नहीं है वह कौन पुरुष है जो राजाखोकी सेवा करेगा ।
हिसानृतौयेभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्या च ।
असत्य,
पापप्रणालिकाम्यो विरति सज्ञस्य चारित्रम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ- पाप कर्मको लानेवाली मोरी पाच है - हिसा, चोरी, मैथुनसेवा तथा परिग्रह । इमसे विरक्त होना हो सम्यग्ज्ञानीका चारित्र है ।
सकल विकल चरण तत्सकल सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणा विकल सागाराणा ससङ्गानाम् ॥ ५० ॥
भावार्थ:- चारित्र दो तरह का है - पूर्ण (सकल) अपूर्ण (विकल) जो सर्व परिग्रह के त्यागी गृहरहित साधु है वे पूर्ण चारित्र पालते है । जो गृहस्थ परिग्रह सहित है वे अपूर्ण चारित्र पालते है ।
कषायैरिन्द्रियैर्दुष्टकुळी क्रियते मना ।
तत वर्तुं न शक्नोति भावना गृहमेधिनी ॥
भावार्थ - गृहस्थीका मन क्रोधादि कषाय तथा दुष्ट पाचों इन्द्रियोंकी इच्छाए इनमे व्याकुल रहता है। इससे गृहस्थी आत्माकी भावना (भले प्रकार पूर्ण रूप से ) नींवर सक्ता है ।
श्री कुदकुदाचार्य प्रवचन नरमे कहते हैं
जेसि विसयेसु रदी ते सिं दुख विषाण स्वभाव | जदि तण हि सम्भाव वावारोणत्थि विसयत्थ ॥ ६४-१ ॥