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दूसरा भाग। भावार्थ-जिनकी इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रीति है उनको स्वाभाविक दुख ज नो । जो पीड़ा या आकुलता न हो तो विषयों के भोगका व्यापार नहीं होसक्ता ।
ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसौख्याणि । इच्छति अणुइवति य आमरण दुक्खमतत्ता ॥ ७९ ॥
भावार्थ-ससारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुखी हो इन्द्रियों के विषयसुखोंकी इच्छा करते रहते है और दुखोंसे सतापित होते हुए मरण पर्यंत भोगते रहते है ( परन्तु तृप्ति नहीं पाते )।
स्वामी मोक्षपाहुडमे कहते हैताम ण णज्ज, अप्पा विसरसु णरो पवट्टर जाम । विसए वित्तचित्तो जोई जाणेइ अाण ॥ ६६ ॥ जे पुण विमय विग्त्ता अप्पाणाऊण भाषणासहिया । छडति चाउरम तवगुणजुत्ता ण सदेहो ॥ ६८ ॥
भावार्थ-जबतक यह नर इन्द्रयोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करता है तबतक यह आत्माको नहीं जानता है । जो योगी विषयोंसे विरक्त है वही आत्माको यथार्थ जानता है। जो कोई विषयोंसे विरक्त होकर उत्तम भावना के साथ आत्माको जानते है तथा साधुके तप व मूलगुण पालने है वे अवश्य चार गति रूप ससारमें छूट जाते हैं इसमें सदेह नहीं।
श्री शिवकोटि आचार्य भगवतीआराधनामें कहते हैंअप्यायत्ता मकिपदी भोगरमण परायत्त । भोगरदीए, चहदो, होदि ण अझप्परमणेपण ॥ १२७० ॥