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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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भोगरदीए णासो नियदो विग्वा य होंति अदिवडुगा | झपरदीए सुभाविदाए ण णासो ण विग्धो वा ॥ १२७१ ॥
णचा दुरतमध्व मत्ताणमतप्पय अविस्साम । भोगसुह तो तला विरदो मोक्खे मदि कुज्जा ॥ १२८३॥
भावार्थ - अध्यात्म में रति स्वाधीन है, भोगोंमें रति पराधीन है। भोगे तो छूटना पड़ता है, अध्यात्म रतिमे स्थिर रह सक्ता है । भोगोंका सुख नाश सहित है व अनेक विनोंसे भरा हुआ है । परन्तु भलेप्रकार भाया हुआ आत्मसुख नाश और विघ्नसे रहित है । इन इन्द्रियोंके भोगोंको दुखरूपी फल देनेवाले, अथिर, अशरण, तृप्ति कर्ता तथा विश्राम रहित जानकर इनसे विरक्त हो, मोक्षके लिये भक्ति करनी चाहिये ।
(१२) मज्झिमनिकाय अनुमानसूत्र ।
एक दफे महा मौद्गलायन बौद्ध भिक्षुने भिक्षुओंसे कहा - चाहे भिक्षु यह कहता भी हो कि मैं आयुष्मानो ( महान भिक्षु ) के वचन ( दोष दिखानेवाले शब्द ) का पात्र हू, किन्तु यदि वह दुर्वचनी है, दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्मोंसे युक्त है और अनुशासन (शिक्षा) ग्रहण करने में अक्षत्र और अप्रदक्षिणा ग्राही ( उत्साह र हित ) है तो फिर सब्रह्मचारी न तो उसे शिक्षाका पात्र मानते है, न अनुशासनीय मानते हैं न उस व्यक्तिमे विश्वास करना उचित मानते हैं ।
दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्म - (१) पापकारी इच्छाओंके वशीभूत होना, (२) क्रोधके वश होना, (३) क्रोधके हेतु ढोंग करना, (४) क्रोध हेतु डाह करना, (५) क्रोधपूर्ण वाणी कहना, (६)