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________________ दूसरा माग। बशेष दिखलानेपर दोष दिखलानेवाले की तरफ हिसक भाव करना, (७) दोष दिखलानेवालेपर क्रोध करना, (८) दोष दिखलानेवालेपर उल्टा आरोप करना, (९) दोष दिखलानेवालेके साथ दूसरी दूसरी बात करना, बातको प्रकरणसे बाहर ले जाता है, क्रोध, द्वेष अप्रत्यय (नाराजगी) उत्पन्न कराता है । (१०) दोष दिखलानेवालेका साथ छोड देना, (११) अमरखी होना, (१२) निष्ठुर होना, (१३) इर्षालु व मत्सरी होना, (१४) शठ व मायावी होना (१५) जड और अतिमानी होना, (१६) तुरन्त लाभ चाहनेवाला, हठी व न त्यागनेवाला होना। इसके विरुद्ध जो भिक्षु सुवचनी है वह सुवचन पैदा करनेवाले धर्मोसे युक्त होता है, जो ऊपर लिखे १६ से विरक्त है। वह मनु शासन ग्रहण करनेमें समर्थ होता है, उत्साहसे ग्रहण करनेवाला होता है। सब्रह्मचारी उसे शिक्षाका पात्र मानते है, अनुशासनीय मानते है, उसमें विश्वास उत्पन्न करना उचित समझते है। भिक्षुको उचित है कि वह अपने हीमे अपने को इस प्रकार समझावे । जो व्यक्ति पापेच्छ है, पापपूर्ण इच्छाओं के वशीभूत है, वह पुद्गक (व्यक्ति) मुझे अप्रिय लगता है, तब यदि मै भी पापेच्छ या पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत हूगा तो मैं भी दूसरोंको अप्रिय हूगा । ऐसा जानकर भिक्षुको मन ऐसा दृढ़ करना चाहिये कि मैं पापेच्छ नहीं हूंगा। इसी तरह ऊपर लिखे हुए १६ दोषों के सम्बन्धमें विचार कर अपनेको इनसे रहित करना चाहिये । भावार्थ-यह है कि भिक्षुको अपने माप इस प्रकार परीक्षण करना चाहिये । क्या मैं पापके वशीभूत हूँ, क्या मैं क्रोधी है। इसी
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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