________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान। १८९ भावार्थ-जो कोई मानव सदा राग द्वेषको नाश करके संसारको मिटानेवाले चारित्रको पालते हैं वे ही परमपद निर्वाणको पाते हैं।
ज्ञानभाषनया शक्ता निभृतेनान्तरात्मनः। अप्रमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितामात्मनः ॥ २१८ ।।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टी महात्मा साधु आत्मज्ञानकी भावनासे सीचे हुए व दृढ़ता रखते हुए प्रमाद रहित ध्यानकी श्रेणियोंमें चढ़कर अपने आत्माका हित पाते हैं।
संसारवासमीरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् । विषयेभ्यो निवृत्तानां श्लाव्यं तेषां हि जीवितम् ॥२१९॥
भावार्थ-जो महात्मा संसारके भ्रमणसे भयभीत हैं, तथा रागादि अंतरङ्ग परिग्रह व धनधान्यादि बाहरी परिग्रहके त्यागी हैं तथा पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त हैं उन साधुओं का ही जीवन प्रशंसनीय है।
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहते हैंशिवम नरमरु जमक्षयमव्यावा, विशोकमयशङ्कम् । काष्टागतसुखविद्या विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणा: ॥४०॥
भावार्थ-सम्यग्दृष्टी जीव ऐसे निर्वाणका लाभका ही ध्येय रखके धर्मका सेवन करते हैं जो निर्वाण मानन्दरूप है, जरा रहित है, रोग रहित है, बाधा रहित है, शोक रहित है, भय रहित है, शंका रहित है, जहां परम सुख व परम ज्ञानकी सम्पदा है तथा जो सर्व मल रहित निर्मल शुद्ध है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसारमें कहते हैं