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________________ १८८ ] दूसरा भाग । होगी, (३) फिर दृष्टि विशुद्धिमे काक्षा वितरण विशुद्धि या मदेह रहित विशुद्धि होगी, (४) फिर इस नि सदेह भावसे मार्ग अमार्ग ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी अर्थात् सुमार्ग व कुमार्गका यथार्थ मंदज्ञानपूर्ण ज्ञानदर्शन होगा (५) फिर इसके अभ्यास से प्रतिपद् ज्ञान दर्शन विशुद्धया सुमार्ग ज्ञानदर्शनकी निर्मलता होगी, (६) फिर इसके द्वारा ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी, अर्थात ज्ञानदर्शन गुण निर्मल होगा, अर्थान् जैन सिद्धांतानुसार अनत ज्ञान व अनत दर्शन प्राप्त होगा, (७) फिर उपादान रहित परिनिर्वाण या मोक्ष प्राप्त हो जायगा जहा केवल अनुभवगम्य एक आप निर्वाण स्वरूप सर्व सासारिक वासनाओंसे रहित, क्रमवर्ती ज्ञानसे रहित, सिद्ध स्वरूप शुद्धा मा वह जायगा । जैन सिद्धात का भी यही सार है कि जब कोई साधक शुद्धात्मानुभवरूप समाधिको प्राप्त होगा जहा मदेहरहित मोक्षमार्गका ज्ञान दर्शन स्वरूप अनुभव है तब ही मलसे रहित हो, अत के बली होगा । अनत ज्ञान व अनत दर्शनका धनी होगा। फिर आयुके अंत में शरीर रहित, कर्म रहित, सर्व उपाधि रहित शुद्ध परमात्मा मिद्ध या निर्वाण स्वरूप होजायगा । भावार्थ यही है कि व्यवहारशील व चारित्र के द्वारा निश्चय स्वात्मानुभव रूप सम्यक्समाधि ही निर्वाणका मार्ग है। जैन सिद्धात के कुछ वाक्य: सारसमुच्चयमे मोक्षमार्ग पथिकका स्वरूप बताया है ससार सिन चर्या ये कुर्वति सदा नरा । रागद्वेषहति कृत्वा ते यान्ति परम पदम् ॥ २१६ ॥
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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