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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १८७ जबतक चित्त विशुद्धि न हो । चित्त विशुद्धि तभीतक है जबतक दृष्टि विशुद्धि न हो। दृष्टि विशुद्धि तभीतक हैं जबतक काक्षा ( सदेह ) विलण विशुद्धि न हो। यह विशुद्धि तभीतक है जबतक मार्गामार्ग ज्ञान दर्शन विशुद्धि न हो यह विशुद्धि तभीतक है जबतक प्रतिग्जनदर्शन विशुद्धि न हो। यह विशुद्धि तभी तक है जबतक ज्ञान दर्शन विशुद्धि न हो। ज्ञान दर्शन विशुद्धि तोतक है जबतक उपादान रहित परिनिर्वाणको प्राप्त नहीं होता । मै इसी अनुपादान परिनिर्वाणक लिये भगवानक पास ब्रह्मचर्य प्राप्त करता हू । सारिपुत्र प्रसन्न होजाता है । इस प्रकार दोनों महानागों ( महावीरों) ने एक दूसरेको सुभाषितका अनुमोदन किया । नोट - इस सूत्र से सच्चे भिक्षुका लक्षण प्रगट होता है जा सबसे पहले कहा है कि अल्पेच्छ हो इत्यादि । फिर यह दिखलाया है कि निर्वाण सर्व उपादान या परिग्रहसे रहित शुद्ध है । उसकी गुप्तिक लिये सात मार्ग वा श्रेणिया है। जैसे सात जगह रथ बदलकर मार्गको तय करते हु कोई श्रावस्ती से मात आवे | चलनेवाले का ध्येय साकेत है । उसी ध्येयवो सामने रखते हुए वह सात रथोंके द्वारा पहुंच जावे । इसी तरह साधकका ध्येय निरुपादान निर्वाणपर पहुचना है । इसीके लिये क्रमश सात शक्तियोंमें पूर्णता प्राप्त करता हुआ निर्वाणकी तरफ बढ़ता है । (१) शीक विशुद्धि या सदाचार पाने से चित्तविशुद्धि होगी । कामवासनाओंसे रहित मन होगा । (२) फिर चित्र विशुद्धिसे दृष्टि विशुद्धि होगी अर्थात् श्रद्धा निर्मल
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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