________________
१९. ]
दसरा भाग।
जो णिहट मोहगठी र उपदाले स्वर' य सामण्णे। होज ममसुदुक्खो सो सोक्ख समक्खय र दि ॥१०७-२॥ जो स्वविटमा लुसा विनयवित्तो ण णरुभित्ता । समविदो सावे स! अप्पाण हव दि ध दा ।। १०८-२ ।। इहलोग णिवेक्खो ४८ डबद्ध। ५ ।म्म लो', मम । जुत्ताहार विहारो रहिद साओ वे समणो ॥ ४२-३ ॥
भावार्थ-जो मोहकी गाठको क्षय करके सावुपदमें स्थित होकर रागद्वेषको दूर करता है और सुख दु खमें समभावका धारी होता है वही अविनाशी निर्वाण सुखको पाता है । जो महात्मा मोहरूप मैलको क्षय करता हुआ, पाचों इन्द्रिओंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ व मनको रोक्ता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें एकतासे ठहर जाता है, वही आत्माका ध्यान करनेबाला है । जो मुनि इस लोक में विषयोंकी आशासे रहित है, परलोक में भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता है, योग्य आहार विहारका करनेवाला है तथा क्रोधादि कषाय रहित है वही साधु है।
श्री कुदकुदाचार्य भावपाहुड़में कहते हैंजो जीवो भावतो जीवसहाव सुभावसजुत्तो। सो जरमरण विणासकुणइ फुड लहइ णिव्वाण ॥ ६१ ॥
भावार्थ-जो जीव आत्माके स्वभावको जानता हुमा मात्माके स्वभावकी भावना करता है वह जरा मरणका नाश करता है और प्रगटपने निर्वाणको पाता है।
श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैं