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________________ ६४ ] दुसरा भाग । 1 है । अर्थात् एक सरकारोंका पुन होजाता है । उसीसे नामरूप होता है । नामरूप ही अशुद्ध प्राणी है, सशरीरी है । इस सर्व विद्या व उनके परिवारको दूर करनेका मार्ग सम्य दृष्टि होकर फिर आष्टा मार्गको पालना है । मुख्य सम्यकूपमा धिका अभ्यास है । सम्यग्दृष्टि वही है जो इस सर्व अविद्या आदिको त्यागने योग्य समझ ले, इन्द्रिय व मनके विषयोंसे विरक्त होजावे । राग, द्वेष, मोहको दूर कर दे । यहा भी मोहसे प्रयोजन अहकार ममकार से है । आपको निर्वाणरूप न जानकर कुछ और समझना । आपके सिवाय परको अपना समझना मोह या मिरयाहति है । इससे पर इष्ट पदार्थोंमे राग व अनिष्टमें द्वेष होता है । अविद्या सम्बन्धी रागद्वेष मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है । उसके भीतर विद्याका जन्म होजाता है, सम्यक्ज्ञान होजाता है । वह निर्वा का अत्यन्त श्रद्धावान होकर सत्य धर्मका लाभ लेनेवाला सम्यक् ष्ट होजाता है। जैन सिद्धातको देखा जायगा तो यही बात विदित होगी कि ज्ञान सम्बन्धी राग व द्वेष तथा मोह सम्यकदृष्टि नहीं होता है । जैन सिद्धात कर्म सबन्धको स्पष्ट करते हुए, इसी बातको सम झाया है । इस निर्माण स्वरूप आत्माका स्वरूप ही सम्यग्दर्शन या स्वात्म प्रतिति है परन्तु अनादि कालसे उनका प्रकाश पाच प्रका ant कर्म प्रकृतियोंके आवरणसे या उनके मैलसे नहीं हो रहा है। चार अनंतानुबन्धी (पाषाणकी रेखाके समान) क्रोध, मान, माया, कोभ और मिथ्यात्व कर्म । अनंतानुबंधी माया और कोमको मज्ञान
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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