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________________ १०८] दूसरा भाग ! भावार्थ-निश्चयसे सर्व की म्या वर मायिक जीव-पृ.वी, जल, स्वग्नि, वायु तथा वनस्पति कायिक जी सुम्च्यतामे कर्मफल चाना रखते है अर्थात् क्मो का फल उप तथा र ख वेदने हे । द्वेन्द्रियादि सर्व त्रसजीव कर्मफल चेतना सहित कम चेतनाको भी मुर यतासे वेदते हैं तथा अतीन्द्रिय ज्ञानी मईत् आदि शुद्ध ज्ञान चेतनाको ही वेदते है। समयसार कलशमें कहा है ज्ञानम्य सचेतनयय नित्य प्रकाशते ज्ञानमतीय शुद्ध। मज्ञानसचेतनया तु धाम्न बोमस्य शुद्धि निरुणद्धि बन्ध ॥३१॥ भावार्थ-ज्ञान के अनुभवम ही ज्ञान निरन्तर अत्यात शुद्ध झलकता है। अज्ञानके अनुभवसे वध द्रौडकर आता है और ज्ञानकी शुद्धिको रोकता है । भावार्थ-शुद्न ज्ञानका बेदन ही हितकारा है। (११) मज्झिमनिकाय चूल दुःख स्वध सूत्र। एक दफे एक महानाम शाक्य गौतम बुद्ध के पास गया और कहने लगा-बहुत समयसे मैं भगवानके उपदिष्ट धर्मको इस प्रकार जानता हू । लोभ चित्तका उपक्लेश (मक ) है, द्वेष चित्तका उपक्लेश है, मोह चित्तका उपक्लेश है, तो भी एक ममय लोमवाले धर्म मेरे चित्तको चिपट रहते है तब मुझे ऐसा होता है कि कौनसा धर्म ( वात ) मेरे भीतर (अध्यात्म ) से नहीं छूटा है। बुद कहते हैं-वही धर्म तरे भीतरसे नहीं हटा जिससे एक समय लोभधर्म तेरे चित्तको चिपट रहते हैं। हे महानाम ! यदि वह धर्म भीतरसे छूटा हुआ होता तौ तु परमें वास न करता, कामोप
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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