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दूसरा भाग ।
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मक्ता है कि वह जानने देखनेवाला, अमूर्ती, अविनाशी, अखड, परम शांत व परमानदमई एक अपूर्व पदार्थ है । उसे ही अपना स्वरूप मानना सम्यग्दर्शन है । मिथ्यादर्शनके कारण अहकार और ममकार दो प्रकारके मिश्याभाव हुआ करते है ।
तत्वानुशासनमें नागसेन मुनि कहते हैंये कर्मकृता भाषा परमार्थनयेन चात्मनो भिन्ना | तत्रात्माभिनिवेशोऽइकारोऽs यथा नृपति ॥ १५ ॥ शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । मात्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देह ॥ १४॥
भावार्थ - जितने भी भाव या अवस्थाए कर्मोंके उदयसे होती है वे सब परमार्थदृष्टि से आत्माके असली स्वरूपमे भिन्न हैं। उनमें अपनेपनेका मिथ्या अभिप्राय सो अहकार है । जैसे मै राजा हू । जो सदा ही अपने से भिन्न हैं जैसे शरीर, घन, कुटुम्ब आदि । जिनका सयोग कर्मके उदयसे हुआ है उनमें अपना सम्बन्ध जोड़ना सो ममकार है, जैसे यह देह मेरा है ।
अविरति - हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील परिग्रहसे विरक्त न होना अविरति है ।
श्री पुरुषार्थसिद्धिउपाय ग्रन्थमें श्री अमृतचद्राचार्य कहते हैंखलु कषाययोगात्प्राणाना द्रव्यभावरूपाणाम् । परोपणस्य करण सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥ प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिति जिनागमस्य सक्षेप ॥ ४४ ॥ भावार्थ- जो क्रोध, मान, माया, या कोमके वशीभूत हो मन