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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [५१ वचन कायके द्वारा भाव प्राण और द्रव्य प्राणोंको कष्ट पहुंचाया जाय या घात किया जाय सो हिंसा है । ज्ञानदर्शन सुख शाति मादि आत्माके भाव प्राण है । इनका नाश भावहिसा है । इंद्रिय, बल, मायु, श्वासोश्वासका नाश द्रव्यहिसा है । पाच इन्द्रिय, तीन बल-मन, वचन, काय होते है । पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति, एकेंद्रिय प्राणियोंके चार प्रकार होते है। स्पर्शनइन्द्रिय, शरीरबल, भायु, श्वासोश्वास, द्वेन्द्रिय प्राणी लट, शख आदिके छ प्राण होते हैं। ऊपरके चारमें रसनाइन्द्रिय व वचनबल बढ़ जायगा ।
तेन्द्रिय प्राणी चीटी, खटमल आदिके सात प्राण होते है। नाक बढ जायगी । चौन्द्रिय प्राणी मक्खी, भौरा आदिके माठ प्राण होते है, आख बढ़ जायगी, पचेंद्रिय मन रहितके नौ प्राण होते हैं। कान बढ़ जायगे। पचेंद्रिय मनसहितके दश होते हैं । मनवल बढ़ जायगा।
प्राय सर्व ही चौपाए गाय, भैस, हिरण, कुत्ता, बिल्ली भादि सर्व ही पक्षी कबुतर, तोता, मोर भादि, मछलिया, कछुवा मादि, तथा सर्व ही मनुष्य, देव व नारकी प्राणियोंके दश प्राण होते हैं ।
जितने अधिक व जितने मूल्यवान प्राणीका घात होगा उतना ही अधिक हिंसाका पाप होगा। इस द्रव्य हिंसाका मूल कारण भावहिंसा है। भावहिंसाको रोक लेनेसे अहिंसावत यथार्थ होजाता है।
जैसा कहा है-रागद्वेषादि भावोंका न प्रगट होना ही अहिंसा है । तथा उनका प्रगट होना ही हिंसा है यह जैनागमका सक्षेप कथन है। निर्वाण साधकके भावहिंसा नहीं होनी चाहिये।