SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ ] दूसरा भाग । ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा | पूर्व निवास अनुस्मरण के लिये, प्राणियोंके च्युति उत्पादके ज्ञानके लिये चित्तको झुकाता था । तथा समाहित चित्त, तथा परिशुद्ध, परिमोदात, अनगण, विगत क्लेश, मृदुभूत कम्मनीय स्थित, एकाग्र चित्त होकर आस्रवोंके क्षयके किये चित्तको झुकाता था । इस तरह रात्रिके पिछले पहर तोसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या दूर हो गई, विद्या उत्पन्न हुई, तम चला मया, आलोक उत्पन्न हुआ। जैसा उद्योगशील अप्रमादी तत्वज्ञानी या आत्मसमीको होता है । गहरा जलाशय हो विहार करता है । जैसे भिक्षुओ ! किसी महावनमें महान और उसका आश्रय ले महान् मृगका समूह कोई पुरुष उस मृग समुहका अनर्थ आकाक्षी, अहित आकाक्षी, योगक्षेम आकाक्षी उत्पन्न होवे । बह उस मृग समूह के क्षेम, कल्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको बद कर दे और रहक चर ( अकेले चलने लायक ) कुमार्गको खोल दे और एक चारिका ' ( जाल ) रख दे | इस प्रकार वह महान् मृगसमूह दूसरे समय में विपत्ति तथा क्षीणताको प्राप्त होगा । और भिक्षुओ ! उस महान मृगसमुहका कोई पुरुष हिताकाक्षी योग क्षेमकाक्षी उत्पन्न होवे, वह उस मृगसमूह के क्षेम कल्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको खोल दे, एकचर कुमार्गको बन्द कर दे और (चारिका ), जालका नाश कर दें । इस प्रकार वह मृगसमूह दूसरे समय में वृद्धि, बिरूढ़ि और 今ち विपुलताको प्राप्त होवेगा 1. भिक्षुओ ! अर्थके समझाने के लिये मैंने यह उपमा कही है।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy