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दसरा भाग। तीन लोकके मुख्य होजात हैं। भव्य जीव भाव सहित भात्मज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर गेग जरा मरणको वेदनाकी दाहको शमन कर सिद्ध होजाते है।
मूलाचार अनगारभावनामें कहा हैअवगदमाणत्थमा अणुस्सिदा मागविदा अचडा य । दता मद्दपजुत्ता समयविदण्हू विणीदा य ॥ ६८ ॥ उपलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहिद मुणिदपज्जाला । करचरणसवुडगा झाणुवजुत्ता मुणी होति ॥ ६९ ॥
भावार्थ-जो मुनि मानके स्तमसे रहित हैं, जाति कुलादि मदसे रहित है, उद्धतता रहित है, शात परिणमी हैं, इन्द्रियोंके विजयी है, कोमलभावसे युक्त है, आत्मस्वरूपके ज्ञाता है, विनय वान हैं, पुण्य पापका भद जाते हैं, जिनशासनमें दृढ़ श्रद्धानी हैं, द्रव्य पर्यायोंके ज्ञाता है, तेरह प्रकार चारित्रसे सवर युक्त हैं, हद मासनके धारी है वे ही सावु ध्यान के लिये उद्यमी रहते हैं।
मूलाचार समयसारमें कहा है:सज्झाय कुत्रत्तो पचिंढियसपुडो तिगुत्तो य । हबदि य एपग्गमणो विणएण ममाहिमो भिक्खू ॥ ७८॥
भावार्थ-शास्त्रको पढ़ते हुए पाचों इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं, मन, वचन, काय रुक जाते है । भिक्षुका मन विनयसे युक्त होकर उस ज्ञानमें एकाग्र होता है। मोक्षमाड़में कहा है
जो इच्छा णिस्सरिहु ससारमहण्णवाउ रद्दामो । कम्प्रिधणाण डहण सो शायह अप्पय सुद्ध ॥ २६ ॥