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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२५१ पचमहव्ययजुत्तो पचसु समिदीसु तीमु गुत्तीतु । ग्यणत्तयमजुत्तो झाणज्झयण सदा कुणह ॥ ३३ ॥
भावार्थ - जो कोई भयानक समाररूपी समुद्रमे निकलना चाहत है उसे उचित है कि कर्मरूपी ईधनको जलानवाले अपने शुद्ध मात्माको याये । साधुका उचित है कि पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ति इस तरह तरह प्रकारके चारित्रसे युक्त होकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित मदा ही आत्म यान व शास्त्र स्वाध्यायमे लगा रहे। सारसमुच्चयमें कहा है---
गृह चारकवासेऽस्मन् विषयाभिषलोमिन । सीदति नरशार्दूल। द्धा मान्धवमन्धन ॥ १८३ ॥
भावार्थ-मिहके समान मानव भी बधुजनोंके वधनसे बधे हुए इन्द्रियविषयरूपी मासके लोभी इस गृहवाममें दु ख उठाते है ।
ज्ञानार्णवमें कहा है
आशा जन्मोग्रपकाय शिपायाशा विपर्यय । इति सम्यक समालोच्य यद्धित तत्समाचा ।।१९-१७ ॥
भावार्थ-आशा तृष्णा ससाररूपो कर्दममें फमानेवाली है तथा आशा तृष्णाका त्याग निर्वाणका देनेवाला है, ऐसा मले प्रकार विचारकर । जिसमें नेश हित हो वैसा आचरण कर ।