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जैन बौद तत्यान। [२४९ एततेत पदमिदमिद यत्र चतन्यधातु
शुद्ध शुद्ध खरसभरत स्थायिभावत्वमेति ॥६-७॥ भावार्थ-ये ससारी जीव अनादिकालसे प्रत्येक अवस्था रागी होते हुए सदा उन्मत्त होरहे है। जिस पदकी तरफसे सोए पड़े है हे अज्ञानी पुरुषों । उस पदको जानो। इधर आमो, इधर माओ, यह वही निर्वाणस्वरूप पद है जहा चैतन्यमई वस्तु पूर्ण शुद्ध होकर सदा स्थिर रहती है । समयसारम कहा है
णाणी गगप्पजहो सधदम्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि कम्मरएण दुद्दममज्झे जहा कणय ॥२२९॥ मण्णाणो पुण रत्तो सव्वदव्येसु कम्प्रमशगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोह ॥ २३० ॥
भावार्थ-सम्यग्ज्ञानी कर्मों के मध्य पड़ा हुआ मी सर्व शरीरादि पर द्रव्योंसे राग न करता हुआ उसीतरह कर्मरजसे नहीं लिपता है जैसे सुवर्ण कीचड़में पड़ा हुमा नहीं बिगड़ता है, परन्तु मिथ्याज्ञानी कर्मोके मध्य पड़ा हुआ सर्व परद्रव्योंसे राग भाव करता है जिससे कर्मरजसे बघ जाता है, जैसे लोहा कीचड़में पड़ा हुआ विगढ़ जाता है । भावपाहुडमे कहा है
पाऊण णाणसलिक णिम्महतिमडाइसोसउम्मुक्का । हुते सिवाळयवासी तिडवणचूडामणी सिद्धा ॥ ९३ ॥ णाणमयविमलसीयलसलिल पाऊण भविय भावेण । पाहिजरमग्णवेयणडाहविमुक्का सिवा होति ॥ १२५ ॥
भावार्थ-आत्मज्ञानरूपी जलको पीकर भति दुस्तर तृष्णाकी दाह व जलनको मिटाकर भव्य जीव निर्वाणके निवासी सिद्ध भगवान