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________________ २४८ दसरा भाग। RANNIVvvmund केवल भोक समय शरीरका तापटा होता है परन्तु फिर बढ़ जाता है, एसा जानकर आत्मज्ञानी विषया सुखसे विरक्त होगए । मायत्या च तदात्वे च द ग्वयोनिनिरुत्तरा। तृगा नदी त्वयात्तीर्णा विद्यानाथा विविक्तया ॥१२॥ भावार्थ-यह तृष्णा नदी बडा दुस्तर है, वर्तमान में भी दम्ब दाई है, आगामी भी दुखदाई है। हे भगवान् | आपने वैराग्यपूर्ण सम्यग्ज्ञानको नौका द्वारा इसको पार कर दिया । समयसार कलशमें कहा है - एकम्य नित्यो न तथा परस्प चिति योविति पक्षपाती। यस्त्ववेदी च्युतपक्षप तस्यास्त नित्य बल्लु चिच्चिदेव ॥२८-२॥ भावाथ-विचार के समयमें यह विकल्प होता है कि द्रव्य दृष्टिसे पदार्थ नित्य है पयाय दृष्टिमे पदार्थ अनित्य है, पन्तु मात्मतत्वके अनुभव करनेवाला है, इ7 सर्व विचारोंसे रहित हो जाता है। उसके अनुभवमें चेतन स्वरूप वस्तु चेतन स्वरूप ही जैसीको तैसी झलकती है। इन्द्रजाल मि मेघमुच्छलत्पु कलावलविकल्पवीचिभि ।। ८स्य विस्फुरणमेव तत्क्षण कृम्नमा ति तदस्मि चिन्मइ ॥४६-३॥ भावार्थ-जिसके अनुभवमें प्रकाश होते ही सर्व विस्पोको तरगाँसे उछलता हुआ यह ससाका इन्द्रजाल एकदम दूर होजाता है वही चैतनाज्योतिमय मैं हू । माससारात्प्रतिपदममो रागिणो नित्यमत्ता सुप्ता यस्मिन्न पदमपद तद्विबुध्यध्वमन्धा ।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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