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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१५१ अप्रिय शब्दपथ पड़ता है तब भी तो उस सुरत, निष्कलह और उपशात रहना चाहिये। मै उस भिक्षुको सुवच नहीं कहता जो भिक्षा आदिके कारण सुवच होता है, मृदुभाषी होना है। ऐसा भिक्षु भिक्षा दिके न मिलनेपर सुवच नहीं रहता। जो भिक्षु केवल धर्मका सत्कार करते व पूजा करते सुवच होता है, उसे मै सुवच कहता इ। इसलिये भिक्षुओं ! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये " केवल धर्मका सत्कार करते पूजा करते सुवच होऊंगा, मृदु भाषी होऊंगा ॥
भिक्षुओ ! ये पाच वचनपथ (बात कहनेके मार्ग) है जिनसे कि दूसरे तुमसे बात करते बोलते है। (१) कालसे या अकाकसे, (२) भूत (पर्याय) से या अभूतम्, (३) स्नेहसे या परुषता (क्टुता) से, (४) सार्थकतासे या निरर्थकतामे, (५) मैत्री पूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे । भिक्षुओ। चाहे दुसरे कालसे बात करे या भकालमे, मृतसे अमूतस या स्नेह से या द्वेषसे, सार्थक या निरर्थक, मैत्रीपूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये-- "मैं अपने चित्तको विकारयुक्त न होने दृगा और न दुवर्चन निकालूगा, मैत्रीभावस हितानुकम्पी होकर विहरूगा न कि द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधी व्यक्तिको भी मैत्रीभाव चित्तसे मप्लावित कर विहरूगा। उमको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, अप्रमाण मैत्रीपूर्ण चित्तसे अप्लावित कर अवैरता-भव्यापादिता (द्रोहरहितता ) से परिप्लावित ( भिगोकर ) विहरूगा।" इस प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।