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दूसरा भाग ।
कताको प्राप्त होगा । ऐसे ही भिक्षुभो ! तुम भी बुगईं को छोड़ो कुशल श्रममें लगो, इस प्रकार धर्मे विनय में उन्नति करोगे ।
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भिक्षुओं भूतकाल में इसी श्रावस्ती नगरा में वैदेहिका नामकी गृहपत्नी थीं । उसकी कीर्ति फैली हुई थी कि वैदेहिका सुरत हैं, निष्कलह है और उपज्ञात है । वैदेहिका के पास काली नामकी दक्ष, आकश्यरहित, अच्छे प्रकार काम करनेवाली दासी थी । एक दफे काली दासीके मनमें हुआ कि मेरी स्वामिनीकी यह मगल कीर्ति फैला हुई है कि यह उपशात है। क्या मेरी आर्या भीतर में क्रोध के विद्य मान रहते उसे प्रगट नहीं करती या अविद्यमान रहती ? क्यों न मैं मार्याकी परीक्षा क्रू ?
एक दफे काली दासी दिन चढे उठी तन आर्याने कुपित हो, सतुष्ट हो भौहें टेढी करली और कहा- क्योंरे दिन चढ़े उठती है ! सब काली दासीको यह हुआ कि मेरी भार्याके भीतर क्रोध विद्यमान है । क्यों न और भी परीक्षा करू ! काली और दिन चढ़ाकर उठी तब वैदेहिने कुपित हो कटु वचन कहा, तब कालीको यह हुआ कि मेरी आर्याके भीतर क्रोष है। क्यों न मैं और भी परीक्षा करू । तब वह तीसरी दफे और भी दिन चढ़े उठी, तब वैदेहिकाने कुपित हो किवाड़की बिलाई उसके मारदी, शिर फूट गया, तब काली दासीने शिरके लोहू बहाते पड़ोसियोंसे कहाकि देखो, इस उपचाताके कामको । तब वैदेहिकाकी अपकीर्ति फैकी कि यह अन् उपशात है।
इसी प्रकार भिक्षुओं । एक भिक्षु तब ही तक सुरत, निष्फलह उपशात है, जबतक वह मप्रिय शब्द थमें नहीं पड़ता । जब उसपर