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________________ ६२ ] दूसरा भाग । लोभ ( राग ), द्वेष, व मोहको छोडे, वह वीतरागी होकर अहकारका त्याग करे | निर्वाणके सिवाय जो कुछ यह अपनेको मान रहा था, उस भावको त्याग करे तब यह अविद्यासे हटकर विद्याको या सच्चे ज्ञानको उत्पन्न करेगा व इसी जन्म में निवाणका अनुभव करता हुआ सुखी होगा, दु खोंका अन्त करनेवाला होगा। यदि कोई निर्वाण स्वरूप आत्मा नहीं हो तो इस तरहका कथन होना ही समय नहीं है । अभावका अनुभव नहीं होसक्ता है । यहा स्वानुभवको ही सम्यक्त कहा है। यही बात जैन सिद्धातमें कही है। विद्याका उत्पन्न होना ही आत्मीक ज्ञानका जन्म है । आगे चलकर बताया है कि तृष्णाके कारणसे चार प्रकारका आहार होता है । (१) भोजन, (२) पदार्थों का रागसे स्पर्श, (३) मनमें उनका विचार, (४) तत्सम्बन्धी विज्ञान । जब तृष्णाका निरोष होजाता है तब ये चारों प्रकारके आहार बद होजाते है । तब शुद्ध ज्ञानान दका ही आहार रह जाता है । सम्यकदृष्टि इस बातको जानता है । यह बात भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है । साधन अष्टाग मार्ग है जो जैनोंके रत्नत्रय मार्ग से मिल जाता है । फिर बताया है कि दुख जन्म, जरा, मरण, माघि, व्याषि तेथा विषयोंकी इच्छा है जो पांच इन्द्रिय व मनद्वारा इस विषयोंको ग्रहण कर उनके वेदन, आदिसे पैदा होती है। इन दुखका कारण काम या इन्द्रियभोगकी तृष्णा है, भावी जन्मकी तथा संपदाकी तृष्णा है। उनका निरोध तब ही होगा जब माष्टाग मार्गका सेवन करेगा । यह बात भी जैन सिद्धांत से मिलती है। सासारीक सर्व दुःखोंका
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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