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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२०५ मह कार, मद, राग, द्वेष मोह, व लौकिक व्यवहारसे विक्ति होकर ध्यानमें लीन होकर अपने ही आत्माको ध्याता है।
शिवकोटि भगवती आराधनामे कहते हैजह जह णिध्वेदुवसम , वेग्गदयादमा पचड्ढति । तह तह भब्भासयर, णिधाण होइ पुरिसस्स ॥ १८६२ ।। वयर पदणेसु जहा, गोसीस चदण ५ गये। बेरुलिय व मणण, तह झाण होइ खवयस्स ॥ १८९४ ।।
भावार्थ-जैसे जैसे साधुमें धर्मानुराग, शाति, वैराग्य, दया, व सयम वढते जाते है वैसे निर्वाण अति निकट आता जाता है । जैसे रत्नोंमें हीरा प्रधान है, सुगन्ध द्रव्योंमें गोसीर चदन प्रधान है, मणियोंमें बैडूर्यमणि प्रधान है तैसे साधुके सर्व व्रत व तपोंमें ध्यान समाधि प्रधान है।
आत्मानुशासनमें कहा हैयम नियमनितान्त शान्त माह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधि सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिनाशी क्लेशजाल समूल दहति निहतनिद्रो निश्चिमाध्यात्मसार ॥ २२५ ॥
भावार्थ-जो साधु यम नियममें तत्पर हैं, जिनका भता बहिरग शात है, जो समाधि भावको प्राप्त हुए हैं, जो सर्व प्राणीमात्र पर दयावान है, शास्त्रोक्त हितकारी मात्रासे आहारके करनेवाले हैं, निंद्राको जीतनेवाले हैं, आत्माके स्वभावका सार जिन्होंने पाया है, वे ही ध्यानके बलसे सर्व दुखोंके जाल ससारको जका देते हैं।