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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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(३) आळरूप, (४) उद्वेग - खेद (५) सशय । ये मेरे भीतर है या नहीं हैं तथा यदि नहीं है तो किन कारणोंसे इनकी उत्पत्ति हो सक्ती है। तथा यदि है तो उनका नाश कैसे किया जावे तथा मैं कौनसा यत्न करू कि फिर ये पैदा न हों। आत्मोन्नति में ये पाच दोष बाधक है
(२) दूसरी बात यह बताई है कि पाच उपादान एकधोंकी उत्पत्ति व नाशको समझता है । सारा ससारका प्रपचजाल इनमें गर्भित है । रूपसे वेदना, वेदनास सज्ञा, सज्ञा से सस्कार, सरकार से विज्ञान होता है । ये सर्व अशुद्ध ज्ञ है जो पाच इद्रिय और मनके कारण होते है । इनका नाश तत्व मननसे होता है । तत्वसारमे कहा है
रूस तूसह णिच्च इदियविसयेहिं सगओ मूढो ।
सकसा पण्णाणी गाणी एदो दु वित्ररीदो || ३१ ॥ भावार्थ - अज्ञानी क्रोध, मान, माया लोभके वशीभूत होकर सदा अपनी इन्द्रियोंसे अच्छे या बुरे पदार्थों को ग्रहण करता हुआ रागद्वेष करके भाकुलित होता है । ज्ञानी इनसे अलग रहता है । बौद्ध साहित्य में इन्हीं पाच उपादान स्कंधों के क्षयको निर्वाण कहते हैं जिसका अभिप्राय जैन सिद्धांतानुसार यह है कि जितने भी विचार व अशुद्ध ज्ञानके भेद पाच इन्द्रिय व मनके द्वारा होते हैं, उनका जब नाश होजाता है तब शुद्ध आत्मीक ज्ञान या केवल ज्ञान प्रगट होता है । यह शुद्ध ज्ञान निर्माण स्वरूप आत्माका स्वभाव है । (३) फिर बताया है कि चक्षु आदि पाच इन्द्रिय और मनसे पदार्थों का सम्बन्ध होकर जो रागद्वेषका मल उत्पन्न होता है, उसे