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दूसरा भाग ।
(३) तीसरी स्मृति यह बताई है कि चित्तको जैसा हो वैस जाने । इसका भाव यह है कि ज्ञानी अपने भावोंको पहचाने। मन परिणामोंमें राग, द्वेष, मोह, आकुलता, चचलता, दीनता हो तब वैसा जाने । उसको त्यागने योग्य जाने और जब भावमें राग, द्वेष, मोह न हो, निराकुल चित्त हो, स्थिर हो, व उदार हो तब वैसा जाने । वीतराग भावोंको उपादेय या ग्रहण योग्य समझे ।
पाचवें वस्त्र सूत्र में अनन्वानुबन्धी क्रोध आदि पश्वीस कषा योंको गिनाया गया है। ज्ञानी पहचान लेता है कि कब मेरे कैसे भाक किस प्रकार के राग व द्वेषसे मलीन है। जो मैलको मैल व निर्मलताको निर्मक जानेगा वही मैळसे हटने व निर्मलता प्राप्त करने का यत्न करेगा। सार समुच्चय में कहते हैं
रागद्वेषमयो जीव कामक्रोधवश यत ।
लोभमोहमद विष्ट ससारे सर त्यसौ ॥ २४ ॥ कामको तथा मोहत्रयोऽव्ये ते महाद्विष ।
एतेन निर्जिता यावत्तावत्सौख्य कुतो नृणाम् ॥ २६ ॥ भावार्थ- जो जीव रागी है, द्वेषी है व काम तथा क्रोधके वश
है लोभ या मोह या मदसे घिरा हुआ है वह ससार में भ्रमण करता है । काम, क्रोध, मोह या रागद्वेष मोह ये तीनों ही महान् शत्रु हैं। जो कोई इनके वशमें जबतक है तबतक मानवोंको सुख कहासे होता है ।
(४) चौथी स्तुति धर्मोके सम्बन्धमें है ।
(१) पहली बात यह बताई है कि ज्ञानीको पाच नीवरण दोषोंके सम्बन्धमें जानना चाहिये कि (१) कामभाव, (२) द्रोहभाव,