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दूसरा भाग।
या लाभ, सत्कार प्रशसाकी चाहना करते हो, या आलसी उद्योगहीन हो, या नष्ट स्मृति हो और सूझसे वचित हो. या व्यग्र और विभ्रात चित्त हो, या पुष्पुज्ञ (अज्ञानी) भेड़गूगे जसे हो, वनका सेवन करते हैं वे इन टोषों के कारण अकुशल भय भैरवको बुलाते हैं। मै इन दोषोंसे युक्त हो वनक सेवन नहीं कर रहा हू । जो कोई इन दोषोंसे मुक्त न होकर वनका सेवन करते है उनमेंसे मै एक हू । इस तरह हे ब्राह्मण | अपने भीतर निर्लोभताको, मैत्रीयुक्त चिसको, शारीरिक व मानसिक आलस्यके अभावको, उपशात तित्तपनेको, निःशक भावको, अपना उत्कर्ष व परनिन्दा न चाहनेवाले भावको, निर्भयताको, अल्प इच्छाको, वीर्यपनेको, स्मृति सयुक्तताको, समाधि सम्पदाको, तथा प्रज्ञासम्पदाको देखता हुआ मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह उत्पन्न हुआ।
तब मेरे मनमें ऐसा हुआ जो यह सम्मानित व अमिलक्षित (प्रसिड) रातिया है जैसे पक्षकी चतुर्दशी, पूर्णर्मासी और अष्टमीकी रातें है बैसी रातोंमें जो यह भयप्रद रोमाचकारक स्थान हैं जैसे मारामचैत्य, बनचैत्य, वृक्षचैत्य वैसे शयनासनोंमें विहार करनेसे शायद तब भयभैरव देखू । तब मैं वैसे शयनासनोंमें विहार करने लगा। तब ब्राह्मण ! वैसे विहरते समय मेरे पास मृग माता था या मोर काठ गिरा देता या हवा पत्तोंको फरफराती तो मेरे मनमें जरूर होता कि यह वही भय भैरव आरहा है। तब ब्राह्मण मेरे मनमें होता कि क्यों मैं दूसरेसे भयकी भाकाक्षा विहररहा हु ? क्यों न मैं जिस जिस भवस्था खता। जैसे मेरे पास वह भयौरव भाता है