________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
1
[ २१ वैसी वैसा अवस्था में रहते उस भयभैरवको हटाऊँ । जब ब्राह्मण टहलते हुए मेरे पास भयभैरव आता तब मै न खडा होता, न बैठता न लेटता । टहलते हुए ही उस भयभैरवको हटाता । इसी तरह खडे होते, बैठे हुए व लेटे हुए जब कोई भय भैरव आता मैं वैसा ही रहता, निर्भय रहता ।
ब्राह्मण ! मैने अपना वीर्य या उद्योग भारम किया था । मेरी मूढता रहित स्मृति जागृत थी, मेरी काय प्रसन्न व आकुलता रहित थी, मेरा चित् समाधि सहित एकाग्र था । (१) सो मैं कामोंमे रहित, बुरी बातोंसे रहित विवेकसे उत्पन्न सवितर्क और सविचार प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । २) फिर वितर्क और विचारके शात होनेपर भीतरी शांत व चित्तको एकाग्रता वाले वितर्क रहित विचार रहित प्रीति सुख वाले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो बिहरने लगा । ( ३ ) फिर प्रीतिसे विरक्त हो उपेक्षक बन स्मृति और अनुभवसे युक्त हो शरीर से सुख अनुभव करते जिसे आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं उस तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । ( ४ ) फिर सुख दुखके परित्याग से चित्तोल्लास व चित्त सत्तापके पहले ही अस्त होजानेसे, सुख दुख रहित जिसमें उपेक्षा से स्मृतिकी शुद्धि होजाती है, इस चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा ।
सो इसप्रकार चित्तके एकाम, परिशुद्ध, अगण ( मल ) रहित, मृदुभूत, स्थिर, और समाधियुक्त होजानेपर पूर्व जन्मोंकी स्मृतिके लिये मैंने चित्तको झुकाया । इसप्रकार आकार और उद्देश्य सहित नेक प्रकारके पूर्व निवासको स्मरण करने लगा। इसप्रकार प्रमाद