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________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान। [९ ही था तो मुझे भी ऐसा होता था कि कठिन है अरण्यवास। मेरे मनमें ऐसा हुआ-जो कोई अशुद्ध कायिक कर्मसे युक्त । य. ब्राह्मण अरण्यका सेवन करते है, अशुद्ध कायिक कर्मके । कारण वह आप श्रमण-ब्राह्मण बुरे भय भैरव ( भय और पता) का आह्वान करते है। ( लेकिन ) मै तो अशुद्ध (क कर्ममे मुक्त हो मरण्य सेवन नहीं कर रहा हूँ। मेरे क कर्म परिशुद्ध हैं। जो परिशुद्ध कायिक कर्मवाले आर्य प सेवन करते हैं उनमें से मै एक हूं। ब्राह्मण अपने भीतर परिशुद्ध कायिक कर्मके भावको देखकर, मुझे अरण्यमें विहार का और भी अधिक उत्साह हुआ। इसी तरह जो कोई अशुद्ध क कर्मवाले, अशुद्ध मानसिक कर्मवाले, अशुद्ध आजीवाले श्रमण ब्राह्मण अरण्य सेवन करते है वे भयभैरवको । है । मै अशुद्ध वाचिक, व मानसिक कर्म व आजीविकासे हो अग्ण्य सेवन नहीं कर रहा है, किन्तु शुद्ध वाचिक, सेक कर्म, व आजीविकाके भावको अपने भीतर देखकर अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह हुआ। हे T! तब मेरे मनमें ऐसा हुआ । जो कोई श्रमण ब्राह्मण लोभी (वासनाओं) में तीव्र रागवाले वनका सेवन करते हैं या हिंसा-व्यापन्न चित्तवाले और मनमें दुष्ट सकल्पवाले या स्त्यान रिक आलस्य) गृद्धि (मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो, या । और अशांत चित्तवाले हो, या लोभी, काक्षावाले और लु हो, या अपना उत्कर्ष (बड़प्पन चाहने) वाले तथा को निन्दनेवाले हो, या जड़ और भीरु प्रकृतिघाले हो,
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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