________________
१८
दूसरा भाग ।
या दान, (९) उत्तम आकिचन (ममत्व त्याग), (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य । (४) अनुप्रेक्षा - भावना बारह नाम ऊपर कहे है |
(५) परीषद जय - बाइस परीषह जीतना - नाम ऊपर कहे है। (६) चारित्र - पाच ( १ ) सामायिक या समाधि भाव- शात भाव, (२) छेदोपस्थापन, समाधि से गिरकर फिर स्थापन, (३) परिहार विशुद्धि-विशेष हिसाका त्याग, (४) सूक्ष्म सावराय - अत्यल्प लोभ शेष, (५) यथाख्यात - नमुनेदार वीतराग भाव । इन सवरके भावों को जो साधु पूर्ण पालता है उसक कर्म पुळका आना बिळ कुल बद होजाता है । जितना कम पालता है उतना कर्मोंका आव होता है। अभिप्राय यह है कि मुमुक्षुको आम्रवकारक भावों से बचकर सवर भाव वर्तन योग्य है ।
।
(३) मज्झिमनिकाय - भय भैरव सूत्र चौथा ।
इस सूत्र में निर्भय भावकी महिमा बताई है कि जो साधु मन वचन कायसे शुद्ध होते है व परम निष्कम्प समाधि भावके अभ्यासी होते है वे वनमें रहते हुए किसी बातका मय नहीं प्राप्त करते ।
एक ब्राह्मणसे गौतमबुद्ध वार्तालाप कररहे है
ब्राह्मण कहता है - " हे गौतम! कठिन है अरण्यवन खड और सूनी कुटिया ( शय्यासन), दुष्कर है एकाग्र रमण, समाधि न प्राप्त होनेपर अभिरमण न करनेवाले भिक्षुके मनको अकेला या यह वन मानो हर लेता है ।
""
गौतम - ऐसा ही है ब्रह्मण ! सम्बोधि ( परम ज्ञान ) प्राप्त होने से पहले बुद्ध न होने के वक्त, जब मैं बोधिसत्व (ज्ञानका उम्मेद