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दूसरा भाग ।
है। वह पानीको, तेजको, वायुको, देवताओंको अनत आकाशको, विज्ञानको, देखे हुएको, सुने हुएको, स्मरणमें प्राप्तको, जाने गएको, एकपनेको, नानापन्का, सर्वको तथा निर्वाणको भी अभिन न्दन नहीं करता है।
तथागत बुद्ध भी ऐसा ही ज्ञान रखत' है क्योंकि वह जानता है कि तृष्णा खोका मूल है। तथा जो भव भवमें जन्म लेता है उसको जरामरणभावी है। इसलिये तथागत बुद्ध सर्व ही तृष्णा के क्षयर विरागमे, निरोधमे, त्यागम, विसर्जनमे यथार्थ परम ज्ञानके जानकार है 1
भावार्थ - मूल पर्याय सूत्रका यह भाव है कि एक अनिर्वचनीय अनुभगम्य तत्व ही सार है । पर पदार्थ सर्व त्यागने योग्य है । कर्म, करण अपादान सम्बध इन चार सरकोंसे पर पदार्थसे यहा तक सम्बन्ध इटया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार पदा
से बने हुए दृश्य जगत को देखे व सुने हुए व स्मरणमें आए हुए ज्ञानसे तिष्ठे हुए विकल्पोंको सर्व आकाशको सर्व इन्द्रिय व मन द्वारा प्राप्त विज्ञानको अपना नहीं है यह बताकर निर्वाणके साथ भी रागभावक विक्लवको मिटाया है । सर्व प्रकार रागद्वेष मोहको, सर्व प्रकार तृष्णा को हटा देनपर जो कुछ भी शेष रहता है वही सत्य तत्व है । इसीलिये ऐसे ज्ञाताको क्षीणास्रव, कृतकृत्य सत्यव्रतको प्राप्त व सम्यज्ञान द्वारा मुक्त कहा है । यह दशा वही है जिसको समाधि प्राप्त दशा कहते है, जहा ऐसा मगन होता है कि मै या तू का व क्या मैं
हू क्य नहीं हूँ इस बानका कुछ भी चितवन नहीं होता है । चिन्तन | करना मना है सूक्ष्म तब मनसे बाहर है। जो