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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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(१) काम या इन्द्रियभोग उपादान, (२) दृष्टि उपादान, (३) शीलव्रत उपादान, (४) आत्मवाद उपादान ! इनका भाव यही है कि ये सब उपादान या ग्रहण सम्यक् समाधिमें बाधक हैं । काम उपादान में साधक के भीतर किंचित् भी इन्द्रियभोगकी तृष्णा नहीं रहनी चाहिये । दृष्टि उपादान में न तो ससारकी तृष्णा हो न अससारकी तृष्णा हो, समभाव रहना चाहिये । अथवा निश्चय नय तथा व्यवहार नय किसीका भी पक्षबुद्धिमें नहीं रहना चाहिये। तब समाधि जागृत होगी । शीरव्रत उपादानमें यह बुद्धि नहीं रहनी चाहिये कि मैं सदाचारी हू । साधुके व्रत पाळता हू, इससे निर्वाण हो जायगा | यह आचार व्यवहार धर्म है । मन, वचन, कायका वर्तन है । यह निर्वाण मार्गसे भिन्न है । इनकी तरफसे अहकार बुद्धि नहीं रहनी चाहिये । आत्मवाद उपादानमें आत्मा सम्बन्धी विकल्प भी समाधिको बाधक है । यह आत्मा नित्य है या अनित्य है, एक है या अनेक है, शुद्ध है या अशुद्ध है, है या नहीं है । किस गुणवाला है, पर्यायवाका है इत्यादि आत्मा सम्बन्धी विचार समाधिके समय बाधक है । वास्तव में आत्मा वचन गोचर नहीं है, वह तो निर्वाण स्वरूप है, अनुभव गोचर है। इन चार उपादानोंके त्यागसे ही समाधि जागृत होगी। इन चारों उपादानोंके होनेका मूळ कारण सबसे अतिम अविद्या बताया है । और कहा है कि साधक भिक्षुकी अविद्या नष्ट होजाती है, विद्या उत्पन्न होती है अर्थात् निर्वाणका स्वानुभव होता है तब वहा चारों ही उपादान नहीं रहते तब वह निर्वाणका स्वय अनुभव करता है और ऐसा, जानता है कि मै कृतकृत्य हू, ब्रह्मचर्य पूर्ण हू, मेरा ससार क्षीण होगया ।
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