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________________ ९६ ] दूसरा भोगे । जैन सिद्धात मे स्वानुभवको निर्वाण मार्ग बताया है और वह स्वानुभव तब ही प्राप्त होगा जब सर्व विकल्पोंका या विचारोंका या दृष्टियोंका या कामवासनाओंका या अहकारका व ममकारका त्याग होगा । निर्विकल्प समाधिका लाभ ही यथार्थ मोक्षमार्ग है । जहा साधक के भावोंमें स्वात्मरसवेदनके सिवाय कुछ भी विचार नहीं है, वह आप्तत्वमें निर्वाण स्वरूप अपने आत्माको आपसे ग्रहण कर लेता है तब सब मन, वचन, कायके विकल्प छूट जाते हैं । समयसार कलशम कहा है अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनित विभ्रत् पृथक् वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमल ज्ञान तथावस्थितम् । मध्याद्यन्तविभागमुक्त सहजस्फार प्रभाभासुर शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥ भावार्थ- ज्ञान ज्ञानस्वरूप होक ठहर गया, और सबसे छूट कर अपने आत्मा में निश्वक होगया, सबसे भिन्न वस्तुपने को प्राप्त हो गया । उसे ग्रहण त्यागका विकल्प नहीं रहा, वह दोष रहित होगया तत्र आदि मध्य अन्त विभागसे रहित सहज स्वभावसे प्रकाशमान होता हुआ शुद्ध ज्ञान समूहरूप महिमाका धारक यह आत्मा नित्य उदय रूप रहता है 1 उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमा देयमशेषतस्तत् । यदात्मनः सहत सर्वशक्तेः पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ॥ ४३ ॥ भावार्थ- जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको संकोच करके अपने में ही अपनी पूर्णताको धारण करता है तब जो कुछ सर्व छोड़ना था सो
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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