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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [९७ छूट गया तथा जो कुछ सर्व ग्रहण करना था सो ग्रहण कर लिया। भावार्थ एक निर्वाणस्वरूप आत्मा रह गया, शेष सर्व उपादान रह गया।
समाधिशतकमे पूज्यपादस्वामी कहते है - यत्पर प्रतिपाद्योइ यत्परान प्रतिपादये।
उन्मत्तचेष्टित तन्मे यदह निर्विकल्पक ॥ १९॥
भावार्थ-मै तो निर्विकल्प हू, यह सब उन्मत्तपनेकी चष्टा है कि मै दुसरोंसे आत्माको समझ लूँगा या मैं दूसरोंको समझा दूं।
येनात्मनाऽनुभूयेऽइमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽह न तन्न सा नासौ नको न द्वौ न वा बहु ॥ २३ ॥
भावार्थ-निस स्वरूपसे मै अपने हो द्वारा अपनमें अपने ही समान अपनेको अनुभव करता हू वही मैं हू । अर्थात् अनुभवगोचर हूं। न यह नपुसक है न स्त्री है, न पुरुष है, न एक है, न दो है, न बहुत है, पर्याप्त सह लिग व सख्याकी कसनासे बाहर है।
(१०) मज्झिमनिकाय महादुःखस्कंध सूत्र ।
गोतमबुद्ध कहते है-भिक्षुओ । क्या है कामों ( भोगों) का भास्वाद, क्या है अदिनव ( उनका दुष्परिणाम), क्या है निस्करण (निकास) इसी तरह क्या है रूपों। तथा वेदनाओंका आस्वाद, परिणाम और निस्सरण ।
(१) क्या है कामोका दुष्परिणाम-यहा कुल पुत्र जिस किसी शिल्पसे चाहे मुद्रासे या गणनासे या सख्यानसे या कृषिसे या वाणिज्यसे, गोपालनसे या बाण-अस्त्रसे या राजाकी नौहरीसे या