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घर है, वहार भिक्षुओंको भिक्षा में अपनी हिंसक अनुमोदना के विना मास मिल जाये तो ले ले ऐसा पाली सूत्रोंमें कहीं कहीं कर दिया गया है । इस कारण मासका प्रचार होजानेसे प्राणातिपात विरमण व्रत नाम मात्र ही रह गया है। बौद्धोंके लिये ही कसाई
लोग पशु मारते व बाजारमे वेचते है । इस बातको जानते हुए भी बौद्ध ससार यदि मासको लेता है तब यह प्राणातिपात होनेकी अनु मति से कभी बच नहीं सक्ता । पाली बौद्ध साहित्य में इस प्रकारको शिथिलता न होती तो कभी भी मासाहारका प्रचार न होता । यदि वर्तमान बौद्ध तत्वज्ञ सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करेंगे तौ इस तरह मासा हारी होने से अहिसा व्रतका गौरव बिलकुल खो दिया है । जब अन्न व शाक सुगमता से प्राप्त होसक्ता है तब कोई बौद्ध भिक्षु या गृहस्थ मासाहार करे तो उसको हिलाके दोषसे रहित नहीं माना जाता है व हिंसा होने में कारण पड जाता है ।
यदि मासाहारका प्रचार बौद्ध साधुओं व गृहस्योंसे दूर हो जावे तो उनका चारित्र एक जैन गृहस्थ या त्यागी के समान बहुत कुछ मिल जायगा । बौद्ध भिक्षु रातको नहीं खाते, एक दफे भोजन करते, तीन काल सामायिक या ध्यान करते, वर्षाकाल एक स्थल रहते, पत्तियोंको घात नहीं करते है । इस तरह जैन और बौद्ध तत्वज्ञान में समानता है कि बहुतसे शब्द जैन और बौद्ध साहित्य के मिळते है । जैसे आस्रव, सवर आदि ।
पाली साहित्य यद्यपि प्रथम शताब्दी पूर्वके करीब सीलोनमे लिखा गया तथापि उसमे बहुतसा कथन गौतमबुद्ध द्वारा कथित