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________________ बन बौद्ध तत्कान। भावार्थ-जब किसी तस्वीके मनमें मोहके कारण रागद्वेष पैदा होजावे उसी समय उसे उचित है कि वह शान्तभावसे अपने स्वरूप ठहरकर निर्वाणम्वरूप अपने आत्माकी भावना करे । गणद्वेष कौकिक ससर्गसे होते है भतएव उसको छोडे। जनेभ्यो वाक् तत स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमा । भवन्ति तस्मात्ससगै जनोंगो स्तस्त्यजेत् ॥ ७२ ॥ भावार्थ-जगतके लोगोंम वातालाप करनेमे मनकी चचलता होता है, तब चित्तमें राग, द्वेष, मोह विकार पैदा होजाते है। इसलिये योगीको उचित है कि मानवों क संसर्गको छोड़े। स्वामी पूज्यपाद इष्टोपदेशमें कहते है अभवञ्चित्तविक्षेपे एकाते रत्वसस्थिति । अपस्येदभियोगेन योगा व निजात्मन ॥ ३६॥ भावार्थ-तत्वोंको भले प्रकार जाननेवाला योगी ऐसे एकातमें जावे जहा चित्तको कोई क्षोभक या रागद्वेषक पैदा करनेके निमित्त न हो और वहा भासन लगाकर तत्वम्वरूपमे तिष्ठे, आलस्य निद्राको जीते और अपने निर्वाणस्वरूप अत्माका अभ्यास करे । ससारमें भकुशक धर्म या पाप पाच है-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनसे बचनके लिये पाच पाच भावनाए जैन सिद्धातमें बताई है । जो उनपर ध्यान रखता है वह उन पाचों पापोंसे बच सक्ता है। श्री उमास्वामी महाराज तत्वाथसूत्रमे कहते है (२) हिंसासे बचनेकी पांच भावनाएँवाङ्मनोगप्तीर्यादाननिक्षेपणसमिट म लोकिन र नमो नगनि पञ्च ||४-७|| २०
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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