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जैन सिद्धातानुसार मा यही बात है कि राग, द्वेष, मोहको त्यागे विना वीतरागता सहित ध्यान नहीं होसकेगा। इसलिये इन भावोंको दूर करनेका ऊपर लिखित प्रयत्न करे। दुसरा प्रयत्न आत्म ध्यानका भी जरूरी है। जितना२ आत्मध्यान द्वारा भाव शुद्ध होगा उतनार उन क्षायरूपी कर्मों की शक्ति क्षीण होगी, जो भावी कालमें अपने विषाकपर रागादि भावोके पैदा करते है इस तरह ध्यानके वलसे हम उस मोहकर्मको जितना२ क्षीण करेंगे उतनार रागद्वेषादि भाव नहीं होगा।
वास्तवमें सम्यग्दर्शन ही रागादि दूर करनेका मूल उपाय है। जिसने ससारको असार व निर्वाणको सार समझ लिया वह अवश्य रागद्वेष मोहके निमित्तोंसे शृद्धापूर्वक बचेगा और वैराग्यक निमित्तोंमें वर्तन करेगा। धैर्य के साथ उद्योग करनेसे ही रागादि भावोंपर विजय प्राप्त होगी।
जैन सिद्धातके कुछ उपयोगी वाक्य ये हैंसमाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैअविद्याभ्याससस्कारवश क्षिप्यते मन । तदेव ज्ञानसरकार स्वास्तत्वेऽवतिष्ठते ।। ३७ ॥
भावार्थ-अविद्या अभ्यासके सस्कारसे मन लाचार होकर रागी, द्वेषी, मोही होजाता है, परन्तु यदि ज्ञानका सस्कार डाला जावे, सत्य ज्ञानके द्वारा विचारा जावे तो यह मन स्वय ही मात्माके सच्चे स्वरूपमे ठहर जाता है।
यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विन. । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मान शाम्यत. क्षणात् ॥ ३९॥