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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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होती है, वह इन भयको नहीं छोड़ सक्ता है । सम्यग्दृष्टी तत्वज्ञानी है, आत्मा निर्वाण स्वरूपका प्रेमी है, ससारको अनित्य अवस्थाओंको अपने ही हुए कर्मका फल जानवर उनके होनेपर आश्चर्य य भय नहीं मान्त ह । अब यहाशक्ति रोगादसे बचने जाय रखता है, परन्तु कायरभान चित्तसे निकाल देता है । वीर सिपाहीक समान ससारमें रहता है, आत्मसंयमी होकर निर्भय रहता है 1 श्री अमृतचद्र आचार्य ने समयसार कलशमें सात भयोंके दूर रहने की बात सम्यग्दृष्टीक लिये कही है। उसका कुछ दिग्दर्शन यह हैसम्यग्दृष्टय एवं साहस मिद कर्तुं क्षमन्ते पर । यद्वत्रेऽपि पतत्यमी भयचळ त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि ॥ सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्का विहाय स्वय । जानत स्वमवध्यबोधमपुष बोधाच्च्पषन्ते न हि ॥ २२-७ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीव ही ऐसा साहस करनको समर्थ है कि जहा व जब ऐसा अवसर हो कि वज्रक समान आपत्ति आरही हों जिनको देखकर व जिनके भय से तीन लोकक प्राणी भयसे भागकर मार्गको छोड़ दें तब भी वे अपनी पूर्ण स्वाभाविक निर्भयताके साथ रहते हैं । स्वयं शका रहित होते है और अपने आपको ज्ञान शरीरी जानते हैं कि मेरे आत्माका कोई वघ कर नहीं सक्ता । ऐसा जानकर वे अपने ज्ञान स्वभावसे किचित् भी पतन नहीं करते हैं ।
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प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरण प्राणा किलास्यात्मनो । ज्ञान तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ॥ तस्यातो मरण न किश्चन भवेत्तद्भी कुतो ज्ञानिनो । निश:क. सतत स्वम स सहज ज्ञान सदा विन्दति ॥ २७-७ ॥