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दूसरा भाग। भावार्थ-बाहरी इन्द्रिय बलादि प्राणों के नाशको मरण कहते है क्तुि इस मात्माके निश्चय प्राण ज्ञान है । वह ज्ञान सदा भवि नाशी है उसका कभी छेदन भेदन नहीं होसक्ता । इसलिये ज्ञानियोंको मरणका कुछ भी भय नहीं होता है-निशक रहकर सदा ही अपने सहज स्वाभाविक ज्ञान स्वभावका अनुभव करते रहते है ।
पचाध्यायीम भी कहा है
परत्रात्मानुभूतेधैं विना भीति कुतस्तनी ।। भीति पर्यायमूढाना नात्मतत्वेकचेतसाम् ॥ ४९५ ।।
भावार्थ-पर पदार्थोंमें आत्मापनेकी बुद्धि के विना भय कैसे होसक्ता है ? जो शरीरमें आसक्त मूढ़ प्राणी है उनको भय होता है केवल शुद्ध मात्माके अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंको भय नहीं होता है।
ध्यानकी सिद्धिके लिय जैसे निर्भयताकी जरूरत है वैसे ही अशुद्ध भावोंको-क्रोध, मान, माया, लोभको हटानेकी जरूरत है ऐसा ही बुद्ध सूत्रका भाव है । इन सब अशुद्ध भावोंको राग द्वेष मोहमें गर्भित करके श्री नेमिचन्द्र सिद्धात चक्रवर्ती द्रव्यसग्रह ग्रंथमें कहते हैं
मा मुज्झइ मा रजह मा दुस्सह इणि मत्थेसु । थिरमिच्छह जई चित्त विचित्तशाणप्पसिद्धीए ॥४८॥
भावार्थ-हे भाई ! यदि तू नानाप्रकार ध्यानकी सिद्धिके लिये चित्तको स्थिर करना चाहता है तो इष्ट व अनिष्ट पदार्थोमें मोह मत कर, राग मत कर, द्वेष मत कर । समभावको प्राप्त हो ।
श्री देवसेन भाचार्यने तत्वसारमें कहा है