________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
धर्म स्वाख्या तत्व |
प
इम बुद्ध सूत्रमें कहा है कि धर्म वह है जो इसी शरीर में अनुभव हो व जो भी विदित हो निर्वाणकी तरफ ले जाने वाला हो तब इसमे सिद्ध है कि धर्म कोई वस्तु है जो अनुभवगम्य है, वह शुद्ध आत्मा के सिवाय दूसरी वस्तु नहीं हो सक्ती है। शुद्धात्मा ही निर्वाण स्वरूप है। शुद्धात्माका अनुदव करना निर्वाणका मार्ग है । शुद्धात्मा शाश्वत रहना निर्वाण ह । यदि निर्माणको अभाव माना जावे तो कोई अनुभव योग्य धर्म नहीं रह जाता है जो निर्वाणको लेजा सके। आगे चलके कहा है कि जो मलोंसे मुक्त होजाता है वह अर्थवेद, धर्मवेद, प्रमोद, व एकाग्रताको पाता है। यहा जो अर्थज्ञान, धर्मज्ञान शब्द है वे बताते हैं कि परमार्थ रूप निर्वाणका ज्ञान व इसके मार्ग रूप धर्मका ज्ञान, इस धर्मक अनुभवसे आनन्द होता है । आनन्दसे ही एका ध्यान होता है ।
[ ४३
――――
श्री देवसेनाचार्य तत्वसार जैन ग्रथमे कहते हैसथिक उपज्जह कोवि सासभ भावो । जो अपणो सहावो मोक्खस्स य कारण सो हु ॥ ६१ ॥ भावार्थ- सर्व मन वचन कायके विकल्पोंके रुक जानेपर कोई ऐसा शाश्वत् भाव प्रगट होता है जो अपना ही स्वभाव है। वही मोक्षका कारण है। श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैंस्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबाहि स्थिते ।
नायते परमानद कश्विद्योगेन योगिन ॥ ४७ ॥ भावार्थ- जो मात्मा के स्वरूपमें लीन होजाता है ऐसे योगी के
योगके बलसे व्यवहारसे दूर रहते हुए कोई अपूर्व आनन्द उत्पन