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________________ m ४२] दूसरा भाग। आप्त उसे कहते है जो तीन गुण सहित हो । जो सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी हो। इन्हींको मर्मत, सयोग केवली जिन, सकल परमात्मा, जिनेन्द्र आदि कहते है। आगम प्राचीन वह है जो आप्तका निर्दोष वचन है । गुरु वह है जो आरम्भ व परिग्रहका त्यागी हो, पाचों इन्द्रियोंकी भाशासे रहित हो, मात्मज्ञान व भात्मध्यानमें लीन हो व तपस्वी हो। तीन मूढता-मूर्खतासे कुदेवोंको देव मानना देव मूढता है। मूर्खतासे कुगुरुको गुरु मानना पाखण्ड मूढता है । मूर्खतासे लौकिक रूढि या वहमको मानना लोक मूढता है। जैसे नदीमें स्नानसे धर्म होगा। आठ मद-१ जाति, २ कुल, ३ रूप, ४ बल, ५ धन, ६ मधिकार, ७ विद्या, ८ तप इनका घमड करना । __ आठ अग-१ निःशकित (शका रहित होना व निर्मल रहना)। २ निःकाक्षित-भोगोंकी तरफ श्रद्धाका न होना। ३ निर्विचिकित्सित-किसीके साथ घृणाभाव नहीं रखना। ४ अमूढदृष्टि-मूढताकी तरफ श्रद्धा नहीं रखना । ५ उपगृहन-धर्मात्माके दोष प्रगट न करना । ६ स्थितिकरण-अपनेको तथा दूसरोंको धर्ममें मजबूत करना । ७ वात्सल्य-धर्मात्मामोंसे प्रेम रखना, ८ प्रभावना-धर्मकी उन्नति करना व महिमा फैलाना। जैसे बुद्ध सूत्रों धर्मके साथ स्वाख्यात शब्द है वैसे जैन सूत्रमें है। देखो तत्वासूत्र उमास्वामी मध्याय ९ सत्र ।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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