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दूसरा भाग। हो जाता है। जब तक किसी शाश्वत् मात्मा पदार्थकी सत्ता न स्वी कार की जायगी तबतक न तो समावि होसक्ती है न सुखका अनु भव होमक्ता है, न धर्मवेद व अर्थीद होसक्ता है ।
ऊपर वुद्ध सूत्र में सामकके भीतर मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ ( उपेक्षा) इन चार भावोकी महिमा बताई है यही बात जैन सिद्धान्तमें तत्वार्थमूत्रमें कही है
मंत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्पानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥ ११-७॥
भावार्थ-व्रती साधकको उचित है कि वह सर्व प्राणी मात्रपर मैत्रीभाव रक्खे, सबका भला विचारे, गुणोंसे जो अधिक हो उनपर प्रमोद या हर्षभाव रक्खे, उनको जानकर प्रसन्न हो, दुखी प्राणियोंपर दयाभाव रक्खे, उनके दु खोंको मेटनेकी चेष्टा बन सके तो करे, जिनसे सम्मति नहीं मिलती है उन सबपर माध्यस्थ भाव रक्खे, न राग करे न द्वेष करे। फिर इस बुद्ध सूत्रमे कहा है कि यह हीन है यह उत्तम है उन नामोंके ख्यालसे जो परे जायगा उनका ही निकास होगा । यही बात जैन सिद्धातमें कही है कि जो समभाव रवेगा, किसीको बुग व किसीको अच्छा मानना त्यागेगा वही भवसागरसे पार होगा। सारसमुच्चयमें श्री कुलभद्राचार्य कहते हैं
समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानस । ममत्वमावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ २१३ ॥
भावार्थ-जो कोई सत्पुरुष सर्व प्राणी मात्रपर समभाव रस्वता है और ममताभाव नहीं रखता है वही अविनाशी निर्वाण पदको *पालेता है।