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दूसरा भाग ।
शीतके सम्बध कहते है कि रत्नत्रयके लाभके समयको पाकर उद्यम करके मुनियोंके पदको धारणकर शीघ्र ही चारित्रको पूर्ण पालना चाहिये ।
इसी ग्रन्थमे माधर्मीजनोंसे प्रेम भावका बताया हैअनवरतमहिसाया शिवसुखद मीनिबन्धने में । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परम वात्सल्यमाठाला म् ॥ २९ ॥
भावार्थ धर्मात्माका कर्तव्य है कि निरंतर मोक्ष सुखकी लक्ष्मी के कारण महाघर्ममें तथा सर्व हो साधर्मीजनों में परम प्रेम रखना चाहिये ।
मागे चलके इसी सूत्र में कहा है कि दृष्टिया दो हैं- एक ससार दृष्टि, दूसरी अससार दृष्टि । इसीको जैन सिद्धातमें कहा है व्यवहार दृष्टि तथा निश्चय दृष्टि । व्यवहार दृष्टि देखती है कि
शुद्ध वस्थाओंकी तरफ लक्ष्य रखती है, निश्चय दृष्टि शुद्ध पदार्थ या निर्वाण स्वरूप आत्मापर दृष्टि रखती है। एक दूसरेसे विशेष है । सलारलीन व्यवहाराक्त होता है । निश्चय दृष्टिसे अज्ञान है, निश्वय दृष्टिवाळा ससारसे उदासीन रहता है। आवश्यक्ता पडने पर व्यवहार करता है परन्तु उसको त्यागनेयोग्य जानता है ।
इन दोनों दृष्टियों को भी त्यागनेका व उनसे निकलनेका जो संकेत इस सूत्र में किया है वह निर्विकल्प समाधि या स्वानुभवकी अवस्था है । वहा साधक अपने आपमें ऐसा तल्लीन होजाता है कि वहा न व्यवहारनयका विचार है न निश्चयनयका विचार है, यही वास्तवमें निर्वाण मार्ग है । उसी स्थितिमें साधक सच वीतराग, ज्ञानी व विरक्त होता है ।