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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१५९ भावार्थ-जो कोई मनुष्य सर्व प्राणीमात्रपर दया तथा मैत्रीभाव करता है वह बाहरी व भीतरी रहनेवाले सर्व शत्रुओंको नीत लेता है। मनस्याल्हादिनी सेव्या सर्वकालसुखप्रदा! उपसेध्या त्वया भद्र क्षमा नाम कुलानना ॥ २६५॥ भावार्थ-मनको प्रसन्न रखनेवाली व सर्वकाल सुख देनेवाली ऐसी क्षमा नाम कुलवधूका हे भद्र ! सदा ही तुझे सेवन करना चाहिये। आत्मानुशासनमें कहा हैहृदयसरसि यावनिमलेप्यत्यगाधै। वसति खलु कषायग्राहचक्र समन्तात् ॥ अयति गुणगणोऽय तन्न तावद्विशङ्क । समदमयमशेषैस्तान् विजेतु यतस्व ॥ २१३ ॥ भावार्थ-हे साधु । तरे मनरूपी गमार निर्मक सरोवरके भीतर जबतक सर्व तरफ क्रोधादि कषायरूपी मगरमच्छ बस रहे हैं तबतक गुणसमूह निशक होकर तेरे भीतर माश्रय नहीं कर सके। इसलिये तु यत्न करके शात भाव, इन्द्रियदमन व यम नियम मादिके द्वारा उनको जीत ।। वैराग्यमणिमालामें श्रीचद्र कहते है भ्रात, बचन कुरु सार चेत्त्व वाछसि ससृ तेपार । मोह त्यक्त्वा काम क्रोध यज भज त्व सयमवरबोध ॥ ६॥ भावार्थ-हे भाई ! यदि तु ससार समुद्र के पार जाना चाहता है तो मेरा यह सार वचन मान कि तु मोहको त्याग, कामभाव व क्रोधको छोड और तू सयम सहित त्तम ज्ञानका मजन कर ।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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