SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैपप्पसमाणा दिहा जीवा सब्वेवि तिहमणस्थावि । जो मज्झत्थो जोई ण य तूसह परसेह ।। ३७ ॥ भावार्थ-जो योगी अपने समान तीन लोकके जीवोंको देख का मध्यस्था या वैसम्यवान रहता है-२ वह किसीपर क्रोध करता है न किसीपर हर्ष करता है। (१७) मज्झिमनिकाय अलंगद्दमय सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-कोई२ मोघ पुरुष गेय, व्याकरण, गाथा, उदान, इतिवृत्तक जातक, अद्भुत धर्म, वैदरप, इन नौ प्रकार के धर्मोपदेशको धारण करते हैं वे उन धर्मोको धारण करते भी उनके अर्थको प्रज्ञासे नहीं परखते हैं । अर्थोको प्रज्ञासे परखे विना धोका भाशय नहीं समझते। वे या तो उपारग (सहायता) के लाभके लिये धर्मको धारण करते है या वादमें प्रमुख बननेके लामके लिये धर्मको धारण करते है और उसके अर्थको नहीं अनुभव करते है। उनके लिये यह विपरीत तरहस धारण क्यि धर्म अहित और दु खके लिये होते है । जैसे भिक्षुओ ! कोई अलगद्द (साप) चाहनेवाला पुरुष अलगद्दकी खोजमें घूमता हुआ एक महान् अलगद्दको पाए और उसे देहसे या पूछसे पकड़े, उसको वह अलगद्द उलटकर हाथमें, बाहमें या अन्य किसी अगमें डस ले । वह उसके कारण मरणको या मरणसमय दुखको प्राप्त होवे, ऐसे ही वह भिक्षु ठीक न समझनेवाला दुख पावेगा।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy