________________
६१८]
। दूसरा भाग। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते है - अधीत्य संकल श्रुत चिमुपास्य घोर तपो। यदीच्छसि फल तयोगिह हिलामपूजादिनम् ।। छिनत्सि सुतपस्तरो प्रसवमेव शून्याशय, ।
क्थ समुपस्प्त्य स सुरसमस्थ व फलम् ॥ १८ ॥
भावार्थ सर्व शास्त्रोंको पढ़क' तथा दार्घ कालना घोर तप भाषन कर यदि तू शास्त्रज्ञान और तपका फल इस लोक्में लाभ, पूजा, सत्कार आदि चाहता है तौ तू विवेकशून्य होकर सुदर तरूपो वृक्षके फूलको ही तोड डालता है। तब तु उस वृक्षके मोक्षरूपी पक्के फलको कैसे पा सकेगा ? तपका फल निर्वाण है, यही भावना फरनी योग्य है। श्री शुभचद्राचार्य ज्ञानार्णवमें कहने हैं
अभय यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदश विश्व जीवलोक चराचरम् ॥ ५२-८ ॥
भावार्थ-सर्व प्राणियोंको अभयदान दो, सर्वसे प्रशसनीय मैत्रीभाव करो, जगतके सर्व स्थावर व त्रस प्राणियोंको अपने समान देखो। श्री सारसमुच्चयमें कहते है--
मैत्र्यङ्गना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी।
या विधत्ते कतोपास्तिश्चित्त विद्वेषधर्जित ॥ २६० ॥
भावार्थ-मनको आनन्द देनेवाली मैत्रीरूपी स्त्रीका सदा सेवन करना चाहिये । उसकी उपासना करनेसे चित्तसे द्वेष निकल जाता है।
सर्वसत्वे दया मेत्री य करोति सुमानस । जयत्यसावरीन् सर्वान् बाह्याभ्यन्तरसस्थितान्ना २६१ ॥