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________________ - - जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१९७ प्रवचनसारमें कहा है - ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहि विसयसोक्खाणि । इच्छति अणुइवति य भामरण दुक्खसतत्ता ॥ ७२-१ ॥ भावार्थ-ससारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुखी होते हुए इन्द्रिय भोगोंके सुखोंको बारबार चाहते हैं और भोगते हैं। मरण पर्यन्त ऐसा करते हैं तथापि सतापित रहते हैं। शिवकोट आचार्य भगवती आराधनामें कहते है । जीवस्स णत्थि तित्ती, चिर पि भोएहि भुनमाणेहिं । तित्तीये विणा चित्त, उव्वूर उध्वुद होइ॥ १२६४ ॥ भावार्थ-चिरकाल तक भोगोंको भोगते हुए भी इस जीवको तृप्ति नहीं होती है। तृप्ति विना चित्त घबड़ाया हुमा उड़ा उड़ा फिरता है। आत्मानुशासनमें कहा हैदृष्ट्या जन ब्रजसि कि विषयाभिलाष स्वल्पोप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धचरण न तथेतरस्य ॥ १९१ ॥ भावार्थ- हे मूढ़ | तू लोगोंकी देखादेखी क्यों विषयभोगोंकी इच्छा करता है। ये विषयभोग थोड़ेसे भी सेवन किये जावें तौमी महान अनर्थको पैदा करते हैं। रोगी मनुष्य थोड़ा भी घी आदिका सेवन करे तो उसको वे दोष उत्पन्न करते है, वैसा दूपरेको नहीं उत्पन्न करते है । इसलिये विवेकी पुरुषोंको विषयाभिलाष करना उचित नहीं। श्री अमितगति तत्वभावनामें कहते हैं
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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