________________
१९६ ]
दूसरा भाग ।
कर दिया । यह भिक्षु मारकी चक्षुसे अगम्य बनकर पापीसे अदर्शन होगया | लोकसे विसत्तिक ( अनासक्त ) हो उत्तीर्ण होगया है ।
नोट - इस सूत्र में सम्यक्समाधिरूप निर्वाण मार्गका बहुत ही बढ़िया कथन किया है । तीन प्रकारके व्यक्ति मोक्षमार्गी नहीं हैं । (१) वे जो विषयोंमें कम्पटी हैं, (२) वे जो विषयभोग छोडकर नाते परन्तु वासना नहीं छोडने, वे फिर लौटकर विषयोंमें फस जाते । (३) वे जो विषयभोगोंमे तो मुर्छित नहीं होते, मात्रारूप अप्रमादी हो भोजन करत परन्तु नाना प्रकार विकल्प जालोंमे या सदेहों में फसे रहते हैं, वे भी समाधिको नही पाते । चौथे प्रकारके भिक्षु ही सर्व तरह ससार से बचकर मुक्तिको पाते है, जो काम भोगोंसे विरक्त होकर रागद्वेष व विकल्प छोड़कर निश्चित हो, ध्यानका अभ्यास करते है | ध्यानके अभ्यासको बढाते बढ़ाते बिलकुल समाधि भावको प्राप्त होजाते है तब उनके आस्रव क्षय होजाते हे वे ससारसे उत्तीर्ण होजाते है । वास्तवमे पाच इन्द्रियरूपी खेतों को अनासक्त हो भोगना और तृष्णासे बचे रहना ही निर्वाण प्राप्तिका उपाय है । गृहीपद में भी ज्ञान वैराग्ययुक्त भावश्यक अर्थ व काम पुरुषार्थ साधते हुए ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । साधु होकर पूर्ण इन्द्रिय विजयी हो, संयम साधन के हेतु सरस नीरस भोजन पाकर ध्यानका अभ्यास बढाना चाहिये । ध्यान समाधि से विभूषित वीतरागी साधु ही ससारसे पार होता है ।
भव जैन सिद्धातके कुछ वाक्य काम भोगोंके सम्बन्धमें कहते हैं