SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D∞ दुसरा भाग । शाखा मरमी होता चाहिये, यही यथार्थ उपदेश होसकता है । उपदेशका हेतु यही हो कि रा । मोह दूर हों व आत्माको ज्यानकी सिद्धि हो । पक्ष मधुओंको शांति बढ़ाने के लिये नर्म चर्चा भी करनी चाहिये । जैन सिद्धात के कुछ वाक्य-प्रवचनसार में कहा है जो हिरमोड व्यागमकुमलो विरागचयिहि | यो महा धम्मोत्ति विसेसि समणो ॥ ९२-१ ।। भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टिको नाश कर चुका है, आगममें कुशल है, वीतराग चारित्रमे सानवान है, वही महात्मा साधु धर्मरूप कहा गया है । बोधप हुडमें कहा है KASTAMON उवसमखमदमजुत्ता सरीग्सकारवजिया रुक्खा | मायदोमरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५२ ॥ पाइलटसँग कुसीक्स ण कुणइ विकहाओ । साझा जुत्ता पञ्चज्जा एरिसा नणिया ॥ ५७ ॥ भावार्थ- जो शान भाव, क्षमा, इन्द्रिय निग्रह मे युक्त है, शरीर के श्रृंगारसे रहित है, उदासीन है, मद, राग व द्वेषसे रहित है उन्हीं साधुकी दीक्षा कही गई है। जो महात्मा पशु, स्त्री, नपुसककी संगति नहीं रखते है, न्यभिचारी व असदाचरी पुरुषकी सगति नहीं करते हैं, खोटी रागद्वेषवर्द्धक कथाए नहीं करने है, स्वाध्याय तथाध्यमे विरते है वहीं सधुका दीसा कहीं गई है । समाधिरा कमें कहा है
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy