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हसरा बाग।
बट्टकेरस्वामी मूलाचार समयसारमे कहते हैभिक्ख चर वस रपणे थोव जेमेहि मा महू जप । दुख सह जिण णिद्दा मेत्ति भावेहि सुठु वेग्ग ॥ ४ ॥ अव्यवहारी एको शाणे एयागमणो भव णिरारभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्टो असगो य ॥१॥
भावार्थ-भिक्षासे भोजन कर, वनमें रह थोडा भोजन कर, दु खोंको सह, निद्राको जीत, मैत्री और वैराग्यभावनाओंको मले प्रकार विचार कर' लोक व्यवहार न कर, एकाकी रह, ध्यानमें लीन हो, भारम्भ मत कर, क्रोधादि कषाय रूपी परिग्रहका त्यागा कर, उद्योगी रह, व असग या मोहरहित रह।
जद चरे जद चिट्ठ जदमासे जद सये । जद भुजेज भासेज एव पाव ण पज्झा ॥ १२२ ।। जद तु चरमाणस्त दयापेहुस्स भिक्खुणो। णव ण बज्झदे कम्म पोराण च विधूयदि ॥ १२३ ॥
भावार्थ हे साधु । यत्नपूर्वक देखके चल, यत्नसे व्रत पाल नका उद्योग कर, यत्नसे भूमि देखकर बैठ, यत्नसे शयन कर, यत्नसे भोजन कर, यत्नस बोल, इस तरह वर्तनसे पाप बध न होगा। जो दयावान साधु यत्न र्वक आचरण करता है उनके नए कर्म नहीं बंधते, पुराने दूर होजाते है।
श्री शिवकोटि भगवती आराधनामें कहते हैंजिदरागो, जिददोसो, निदिदियो जिदभमो जिदकलामओ । रदि अरदि मोहमहणो, झाणोधगमो सदा होई ॥ ६८ ॥ भावार्थ-जिसने रागको जीता है, द्वेषको जीता है, इन्द्रियोंको