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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१२७ हटाना, यह सब सक्षेपसे सम्यग्दर्शनका विनय है । व्रतीमें माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य नहीं होने चाहिये । अर्थात् कपटमे, अश्र द्धासे व भोगाकाक्षासे धर्म न पाले।
तत्वार्थसारमे कहा हैमायानिदानमिथ्यात्वशल्याभावविशेषत । माहिंसादिवतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ॥ ७८ ॥
भावार्थ-वी अहिंसा मादि व्रतोंका पालनेवाला व्रती कहा जाता है जो माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों कीलों व काटों) से रहित हो।
मोक्षमार्गका साधक कैसा होना चाहिये । श्री कुंदकुदाचार्य प्रवचनसारमे कहते हैइहलोग णिराधक्खो अप्पडिबद्धो परिस्मि लोयमिम । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥ ४२-३।।
भावार्थ-जो मुनि इस लोकमें इन्द्रियोंक विषयोंकी अभिलाषासे रहित हो, परलोकमें भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता हो, योग्य परिमित लघु आहार व योग्य विहारको करनेवाला हो, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का विजयो हो, वही श्रमण या साधु होता है।
स्वामी कुदकुद बोधपाहुडम कहते हैणिण्णेहा णिलोहा णिम्मोहा णिजियार णिक्कलुमा । णिमय णिरासभावा पन्धज्जा एरिसा भणिया ।। ५०॥
भावार्थ-जो स्नेह रहित है, लोम रहित हैं, मोह रहित है, विकार रहित है, क्रोधादिकी कलुषतासे रहित है, भय रहित है, माशा तृष्णासे रहित हैं, उन्हींको साधु दीक्षा कही गई है।