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________________ २६ ] दूसरा भाग । है जो उसकी अरहंत व सिद्ध परमात्मामें व साधुमे भक्ति हो, धर्म नानका उद्योग हो तथा गुरुओंकी आज्ञानुसार चारित्रका पालन हो । स्वामी कुदकुन्दाचार्य प्रवनसारमें कहते है ण हवदि समणोत्ति मदो सजमतवत्तसपजुत्तोवि । दि इदि ण मत्थे आदयमाणे जिणक्खादे || ८५-३ ॥ भावार्थ- जो कोई साधु सयमी, तपस्वी व सूत्रके ज्ञाता हो रन्तु जिन कथित आत्मा आदि पदार्थोंमें जिसकी यथार्थ श्रद्धा नहीं है वह वास्तव में श्रमण या साधु नहीं है । स्वामी कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कहते है देव गुरुम्म भत्तो साहम्मिय सजदे अणुरतो । सम्मत्तमुहतो झाणरओ होइ जोई सा ॥ ५२ ॥ भावार्थ जो योगी सम्यग्दर्शनको धारता हुआ देव तथा गुरकी भक्ति करता है, साधर्मी सयमी साधुओंमें प्रीतिमान है बड़ी ध्यान मे रुचि करनेवाला होता है । शिवकोटि आचार्य भगवती आराधना में कहते है व्रहतसिद्धचेइय, सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य । आयरियेसूवज्झा, एसु पवयणे दसणे चावि ॥ ४६॥ भत्ती पूषा वण्णज-, णण च णासणमवण्णवादस्स | मासादणपरिहारो, दसणविणओ समासेण ॥ ४७ ॥ भावार्थ - श्री अरहत शास्ता आप्त, सिद्ध परमात्मा, उनकी मूर्ति, शास्त्र, धर्म, साधु समूह, आचार्य, उपाध्याय, वाणी और सम्यग्दर्शन इन दस स्थानोंमें भक्ति करना, पूजा करनी, गुणका वर्णन, कोईं निन्दा करे तो उसको निवारण करना, अविनयको
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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