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दूसरा भाग ।
मिथ्याज्ञानका बताया है । मिथ्याज्ञानक स फारसे ही विज्ञ न होता
है । विज्ञान से ही नामरूप होत हैं । अर्थात् सासारिक प्राणीका शरीर और चेनारूप ढाचा बनता है । ह एक जीवित प्राणी नामरूप
今
| नामरू के होते हुए मनवके भीतर पाच इन्द्रिय और मन ये
छ आयतन (organ ) होते है । इन छहों द्वारा विषयका स्पर्श
होता है या ग्ररण होता है । विषयोंके ग्रहणसे सुम्व दुखादि वेदना
होती है | वेदना से तृष्णा होज ती है। जब किसी बालकको रड्डू खिलाया जाता है वह खाकर उसका सुख पैदाकर उसकी तृष्णा उत्पन्न कर लेता है । जिससे वारवार बड्डूको मागता है । जैन सिद्धात में भी मिथ्यादर्शन सहित ज्ञानको या अज्ञानको ही तृष्णाका मूल बताया है। मिथ्य ज्ञानसे तृष्णा होती है, तृष्णा के कारण उपादान या इच्छा ग्रहणकी होती है । इसीसे ससारका सहकार पडता है । भव बनता है तब जन्म होना है, जन्म होता है तब दुख शोक सेना पीटना, जरामरण होता है । इम तरह इस सूत्र में सर्व दुखों का मुलकारण तृष्णा और अविद्याको बताया है । यह बात जैन सिद्धातसे सिद्ध है ।
(७) फिर यह बताया है कि अविद्याके नाश होने से सर्व दुखका निरोध होता है। अविद्या के ही कारण तृष्णा होती है । यही बात जैन सिद्धान्तमें है कि मिथ्याज्ञानका नाश होनेसे ही ससारका नाश होजाता है ।
(८) फिर यह बताया है कि साधकको स्वानुभव या समावि भावपर पहुँचने के लिये सर्व भूत भविष्य वर्तमानके विकल्पोंको,